भारतीय कानून कस्टडी में माँ-पिता को बराबर मानता है, लेकिन कोर्ट के फैसलों में सामाजिक धारणाएँ हावी रहती हैं। सही कानूनी रणनीति और जानकारी के अभाव में अधिकांश पिता कस्टडी की लड़ाई हार जाते हैं।
नई दिल्ली: भारतीय कानून के अनुसार, चाइल्ड कस्टडी प्राप्त करना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि कस्टडी पाने वाला व्यक्ति उस बच्चे की माँ है या उसका पिता, बल्कि यह इस बात से तय किया जाता है कि बच्चे का सर्वोत्तम हित किसके साथ है।
इसी विषय में यदि सामाजिक मान्यताओं पर दृष्टि डालें तो ये पता चलता है कि, पिता की तुलना में बच्चे की माँ अधिक योग्य है, उसका पालन-पोषण करने के लिए, क्योंकि एक बच्चे का शारीरिक एवं भावनात्मक जुड़ाव माँ के साथ अधिक होता है, अब सवाल यह है की इस विषय पर भारतीय न्यायपालिका का क्या दृष्टिकोण है?
न्यायालय किन बातों को ध्यान में रखकर “चाइल्ड कस्टडी” मामलों में फैसले सुनाती है?
क्या न्यायालयों का फैसला निर्धारित कानून के अनुसार होता है या उन फैसलों पर सामाजिक मान्यताओं का भी प्रभाव होता है?
और कैसे एक पिता सही जानकारी एवं रणनीति के अभाव में कानूनी पक्षपात का शिकार हो जाता है?
इन सवालों पर नज़र डालने से पहले इस इस बात की जानकारी होना आवश्यक है, की चाइल्ड कस्टडी है क्या, और कब इसकी नौबत आती है?
चाइल्ड कस्टडी क्या है और कब पड़ती है इसकी ज़रूरत?
चाइल्ड कस्टडी उस अवस्था अथवा व्यवस्था को कहा जाता है, जब बच्चे को साथ रखने, देखभाल एवं पालन-पोषण करने, उसकी शिक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़े फैसले लेने का अधिकार और बच्चे के प्रति सभी उत्तरदायित्व कोर्ट किसी एक अभिभावक, माता या पिता को सौंपती है।
यदि भारतीय कानूनी व्यवस्था पर नज़र डालें तो ये पता चलता है कि बच्चे का सर्वोत्तम हित यानि “वेलफेयर ऑफ़ चाइल्ड” को ध्यान में रखकर ये फैसला किया जाता है कि बच्चे की कस्टडी किसको दी जाएगी।
अतः बच्चे की कस्टडी ना तो माता के अधिकार पर निर्भर करती है, ना ही पिता के अधिकार पर, बल्कि इसके लिए महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक बिंदु है “बच्चे का अधिकार” क्योंकि एक बच्चे की सही वर्तमान परवरिश ही उसका उज्जवल भविष्य तय करती है, अतः न्यायालयों के लिए बच्चे की कस्टडी का फैसला करते समय उसके सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखना ज़रूरी हो जाता है।
अब सवाल उठता है, कि चाइल्ड कस्टडी की नौबत क्यों और कब आती है? सामान्यतः ऐसे मुश्किल फैसले की की नौबत तभी आती है जब बच्चे के माता-पिता कानूनी रूप से एक दुसरे से अलग हो रहे होते हैं अथवा तलाक़ लेते हैं, और बच्चे की परवरिश को लेकर आपसी सहमति नहीं बना पाते।
‘चाइल्ड कस्टडी’ के मुद्दे पर न्यायिक दृष्टिकोण
यदि बात की जाये भारत में बने कानून और उनके संशोधन की, तो इस बात से इस इंकार नहीं किया जा सकता की ये अधिकतर महिलाओं के पक्ष में हैं, लेकिन जब बात चाइल्ड कस्टडी की आती है तो कानून महिलाओं एवं पुरुषों को बराबर का हक देता है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि बच्चे का सर्वोत्तम हित किसके साथ रहने में है, अतः ये माना जा सकता है कि जब मुद्दा बच्चे की परवरिश और उसके भविष्य का हो, तो हमारी न्याय व्यवस्था स्त्री एवं पुरुष में भेदभाव नहीं करती, परन्तु इसी विषय पर न्यायालयों द्वारा निर्णीत मामलों को देखा जाए तो सच्चाई विपरीत नज़र आती है।
90 फीसदी से अधिक मामलों में न्यायालयों ने माँ को ही बच्चे की कस्टडी के लिए अधिक योग्य माना है, परिणामतः बच्चे की कस्टडी पाने में विफल पिता अक्सर पक्षपात का दवा करता हुआ, भारत की न्याय व्यवस्था को कोसता हुआ नज़र आता है।
पर क्या ऐसे मामलों में सिर्फ कानूनी व्यवस्था को दोषी ठहराया जा सकता है? हालाँकि भारतीय न्याय व्यवस्था को लिंग के आधार पर पूर्णतया तटस्थ भी नहीं माना जा सकता, लेकिन संभावित यह भी है कि पिता द्वारा बच्चे की कस्टडी मांग करने में कोई चूँक हुई हो और इसका लाभ बच्चे की माँ को मिला हो।
सफल चाइल्ड कस्टडी प्राप्त करने के लिए एक पिता को किन बातों की जानकारी होनी चाहिए
अपने बच्चे की कस्टडी पाने के लिए एक पिता को इस बात की जानकारी होना बहुत ज़रूरी है कि किस तरह की कस्टडी चाहिए, क्योंकि सिर्फ कस्टडी की माँग करना कोर्ट को गुमराह करना है और ऐसे में पिता कभी भी सफल परिणाम नहीं पा सकता, इसलिए यह ज़रूरी है कि एक पिता को कस्टडी के प्रकार की जानकारी हो।
भारत में चाइल्ड कस्टडी के विकल्प जो एक पिता को प्राप्त है
शारीरिक कस्टडी : यदि कोई पिता न्यायालय से ‘शारीरिक कस्टडी’ की मांग करता है, तो इसका अर्थ है कि बच्चा उसके साथ रहेगा और उसे कस्टोडियन अभिभावक माना जाएगा। माँ को बच्चे से मिलने का अधिकार दिया जा सकता है। बच्चे की शारीरिक कस्टडी प्राप्त करने के लिए, पिता को न्यायालय में यह सुनिश्चित करना होगा कि की उसके द्वारा बच्चे को स्थिर, शांतिपूर्ण व घरेलू वातावरण दिया जायेगा और यह भी आश्वासन देना होगा कि बच्चे का सर्वोच्च हित उसके साथ रहने में ही है।
कानूनी कस्टडी : जिस भी अभिभवाक को कानूनी कस्टडी मिलती है उसे बच्चे से जुड़े महत्त्वपूर्ण फैसले लेने का अधिकार मिल जाता है, जैसे- बच्चे के स्वास्थ, शिक्षा, सुरक्षा इत्यादि से जुड़े बुनियादी फैसले कानूनी कस्टडी पाने वाला अभिभावक ले सकता है। यदि पिता को बच्चे कानूनी कस्टडी मिलती है, तो इसका अर्थ यह है कि शारीरिक कस्टडी माँ के पास होने पर भी उसे बच्चे से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार होगा।
संयुक्त/साझा कस्टडी : संयुक्त अथवा साझाकस्टडी के अंतर्गत, बच्चे के माता व पिता दोनों को बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को साझा करने का अवसर मिलता है, जिसमें बच्चा बारी-बारी से अपना निवास स्थान बदल भी सकता है। संयुक्त कस्टडी प्रदान करके, न्यायालय सुव्यवस्थित तरीके से बच्चे का माता एवं पिता दोनों के साथ पालन-पोषण सुनिश्चित करता है, ताकि बच्चे की परवरिश में दोनों का योगदान हो और उसे किसी नकारात्मक परिस्थिति का सामना ना करना पड़े।
मिलने का अधिकार : यदि एक पिता अपने बच्चे की उपरोक्त में से कोई भी कस्टडी प्राप्त करने में असमर्थ रहता है, तो मिलने का अधिकार पाकर भी वह बच्चे की अच्छी परवरिश में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस अधिकार के अंतर्गत, यदि एक अभिभावक को बच्चे की कस्टडी न मिली हो तो भी उसे बच्चे से मिलने का, उसके साथ समय बिताने का, उससे एक बेहतर संबंध बनाये रखने का अधिकार मिल जाता है।
अदालतें मामले के दौरान अंतरिम कस्टडी या मुलाक़ात का अधिकार प्रदान कर सकती हैं और बाद में अंतिम कस्टडी भी प्रदान कर सकती हैं। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26 के तहत, वैवाहिक कार्यवाही में नाबालिग बच्चे की कस्टडी/भरण-पोषण/शिक्षा के संबंध में अंतरिम/अंतिम आदेश देने का विशेष अधिकार कानून के अंतर्गत आता है।
विभिन्न परिस्थितियाँ जिनमें एक पिता अपने बच्चे की कस्टडी का दावा कर सकता है
भारत में बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने के लिए, एक पिता द्वारा न्यायालय को यह आश्वासन दिया जाना आवश्यक है कि वह “बच्चे का सर्वोत्तम हित और कल्याण” के लिए हमेशा तत्पर होगा और इसके लिए वह पूर्णतया सक्षम है, क्योंकि भारतीय कानून के अंतर्गत यह सर्वोपरि शर्त है, एवं न्यायलय तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही कस्टडी का निर्णय लेती है।
वे परिस्थितियाँ जिनके अंतर्गत एक पिता अपने बच्चे की अभिरक्षा का दावा कर सकता है:
- बच्चे का कल्याण – बच्चे की कस्टडी तय करने में इसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें बच्चे का शारीरिक, नैतिक, शैक्षिक एवं भावनात्मक कल्याण, घर के वातावरण की स्थिरता और देखभाल, मार्गदर्शन और सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता शामिल है। यदि पिता यह साबित कर देता है कि वह बच्चे का बेहतर एवं समग्र कल्याण करने में सक्षम है , तो कस्टडी उसे दी जा सकती है।
- माता की अयोग्यता अथवा अक्षमता: यदि एक पिता बच्चे की माता की निम्नलिखित में से किसी भी अक्षमता को साबित कर देता है, तो बच्चे की कस्टडी प्राप्त करना उसके लिए आसान हो सकता है:
- वह किसी गंभीर मानसिक बीमारी से पीड़ित है
- वह शारीरिक रूप से बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ है
- वह मादक पदार्थों के सेवन करती है या आपराधिक गतिविधि में शामिल है
- वह बच्चे के प्रति उपेक्षा, क्रूरता या अनैतिक आचरण प्रदर्शित करती है जिससे बच्चा प्रभावित होता है
- उसने बच्चे को त्याग दिया है
माता की ये अक्षमताएँ उसके केस को कमजोर बनाती हैं और ऐसी स्थितियों में, पिता को बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने के लिए अधिक योग्य अभिभावक माना जाता है।
Case Ref.- (Gaurav Nagpal V. Sumedha Nagpal (2009))
- बच्चे की उम्र और लिंग: यदि बच्चा 5 वर्ष से कम आयु का है, तो कस्टडी आमतौर पर माँ को ही दी जाती है, हालांकि पिता कस्टडी प्राप्त कर सकता है यदि वह यह साबित कर दे कि माँ बच्चे की बेहतर देखभाल करने में असमर्थ है या उसके साथ बच्चे का कल्याण खतरे में है। यदि बच्चा बड़ा है, तो न्यायालय शिक्षा की निरंतरता और उसका पिता के साथ भावनात्मक जुड़ाव पर विचार करता है। न्यायाधीश बच्चे से निजी तौर पर बातचीत करके उसकी पसंद जान सकते हैं, और उसी के अनुसार कस्टडी प्रदान कर सकते हैं।
- पिता की आर्थिक स्थिति: यदि पिता यह साबित कर दे कि वह बच्चे को निम्नलिखित चीज़ें प्रदान करने में सक्षम है, जैसे-
- बेहतर शिक्षा
- स्थिर एवं शांत घरेलू वातावरण
- चिकित्सा देखभाल
- बच्चे को समग्र शारीरिक और भावनात्मक सुरक्षा, तो न्यायालय कस्टडी का अधिकार उसके पक्ष में दे सकता है, हालांकि केवल आर्थिक स्थिति ही पर्याप्त नहीं है, उसे अन्य आवश्यकताओं को भी पूरा करना चाहिए।
भारत में कस्टडी पाने के लिए कानूनी ढांचा
भारतीय कानूनों के तहत, ऐसा कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है जो स्वतः ही बच्चे की कस्टडी पिता या माता को प्रदान करता हो। हालांकि, कुछ अधिनियम और विशिष्ट धाराएं स्पष्ट रूप से पिता को कस्टडी का दावा करने का अधिकार प्रदान करती हैं।
Hindu Minority and Guardianship Act 1956 की धारा 6 (a) के तहत एक पिता कानूनी रूप से बच्चे का अभिभावक होता है, हालाँकि बच्चे की 5 वर्ष की आयु तक आमतौर पर कस्टडी उसकी माता को ही मिलती है और ऐसे में भी पिता पूर्ण रूप से उसके अभिभावक की भूमिका निभा सकता है।
Hindu Minority and Guardianship Act 1956 की धारा 13 के अंतर्गत माता या पिता जो भी न्यायालय में यह साबित कर दे कि बच्चे के कल्याण के लिए वह अधिक सक्षम यो योग्य अभिभावक है तो बच्चे की कस्टडी उसे प्राप्त हो सकती है।
Guardians and Wards Act, 1890 की धारा 17 के अनुसार न्यायालय बच्चे के कल्याण पर विचार करते हैं, जिसमें बच्चे की आयु, लिंग, धर्म और चरित्र, और प्रस्तावित अभिभावक की बच्चे से निकटता इत्यादि शामिल है। अतः इन मापदंडो में यदि एक पिता स्वयं को सक्षम साबित कर पाता है तो बच्चे की कस्टडी उसे प्राप्त हो सकती है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 के अनुसार न्यायालय भरण-पोषण संबंधी कार्यवाही पर निर्णय लेते समय नाबालिग बच्चे की अंतरिम कस्टडी का आदेश दे सकती है, जिसमें पिता को कस्टडी सौंपना भी शामिल है।
मुख्य निष्कर्ष
- भारतीय कानून कस्टडी में माँ–पिता को समान मानता है, लेकिन व्यवहार में पिता को स्वतः अयोग्य मान लिया जाता है।
- चाइल्ड कस्टडी माँ का विशेषाधिकार नहीं, बच्चे का अधिकार है—फिर भी कोर्ट अक्सर सामाजिक धारणाओं से प्रभावित रहती है।
- अधिकतर पिता सही कानूनी रणनीति और कस्टडी के प्रकार की समझ के अभाव में अपना ही केस कमजोर कर देते हैं।
- “वेलफेयर ऑफ चाइल्ड” के नाम पर पिता को हाशिये पर डालना न्याय नहीं, यह संरचनात्मक पक्षपात है।
- एक जागरूक, तैयार और तथ्य-आधारित पिता ही इस सिस्टम में चाइल्ड कस्टडी की वास्तविक लड़ाई लड़ सकता है।
FAQs
- क्या भारत में पिता अपने बच्चे की कस्टडी पा सकता है?
हाँ, कानून पिता को भी माँ के बराबर अधिकार देता है, लेकिन कस्टडी तभी मिलती है जब वह साबित करे कि बच्चे का सर्वोत्तम हित उसके साथ है। - कोर्ट ज़्यादातर मामलों में माँ को ही कस्टडी क्यों देती है?
कानून तटस्थ है, लेकिन न्यायिक फैसलों में सामाजिक धारणा और यह मान्यता हावी रहती है कि माँ ही बेहतर देखभाल कर सकती है। - पिता की सबसे बड़ी कानूनी गलती क्या होती है कस्टडी केस में?
बिना कस्टडी के प्रकार समझे केवल “कस्टडी चाहिए” कहना, बिना ठोस सबूत और रणनीति के केस फाइल करना। - क्या पिता को जॉइंट या लीगल कस्टडी मिलने की संभावना ज़्यादा होती है?
हाँ, यदि शारीरिक कस्टडी कठिन हो तो लीगल या संयुक्त कस्टडी एक मजबूत और व्यावहारिक विकल्प बन सकती है। - क्या चाइल्ड कस्टडी माँ का अधिकार है या बच्चे का?
कानून के अनुसार कस्टडी माँ या पिता का नहीं, बच्चे का अधिकार है—लेकिन व्यवहार में इसका पालन कम और दुरुपयोग ज़्यादा होता है।


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